10/07/2014

हैदर - एक समीक्षा

हैदर - एक समीक्षा

1."मेरी मोत का इंतकाम लेना  मेरे बच्चे , उसकी उन दो आँखों में गोलिया दागना जिन आँखों से उसने तुम्हारी माँ पर फरेब डाले थे "
२. "हम तब तक आजाद नही होते जब तक की हम अपने इंतकाम से आजाद नही हो जाते।"  


10/06/2014

किस और चला जाऊ

किस और चला जाऊ ,
इस और चला जाऊ,
या उस और चला जाऊ। 
बहते हे सब धुन में ,
में भी बहता  जाऊ
भीड़ जिधर हे स्वीकार उधर
उस रह अनगिनत ,
चला जाऊ?
या नई कोई रहह में पकडू ?
आशंका में फसता जाऊ  
क्या सही गलत कोई जानता ?
या हर कोई भीड़ के साथ ही बहता
क्या संख्या नरमुंडों का पैमाना हे
सही रह का ?
एक अकेली रह पकड़ जो,
वही  पहुंचे हे कही /रवि तक ,
सारी  प्रगति और सभ्यता
के नववाहक दूत बने या खेत रहे। 
किस और चला जाऊ
मन कहता हे

 राह  अनूठी
मस्तक बस अपना  गणित देखता
समाज  जंजीर बनाता

,राह पुरातन पर सत्ताधारी
किस और चला जाऊ?


द्वारा - राकेश जैन 

Written by RK JAin

7/13/2014

अंग्रेजी पुल या दीवार ?

                                 
                                          यह इस देश की विडंबना है की जिस  भाषा को संपर्क सूत्र और ज्ञानार्जन की भाषा के  के रूप मे काम करना  चाहीये था़ । जिसका सहारा लेकर लोग आगे बढते । उसे  बडी ही चतुरता से मैकाले के पुत्रो   ने दीवार के रूप मे बदल दीया है। ताकी पीढी दर पीढी इन्ही  के वंशज जागीर संभांलते रहे। संघ लोक सेवा आयोग द्वारा सी सैट लागू करना तो इसका एक उदाहरण मात्र  है। हालात पहले भी कभी अचछे नही रहे । हा ये जरूर है की ईतनी निर्लज्जता  दवारा गैर अंगैजी भाषी/हिन्दी  भाषी  छात्रों  का  दमन  नही   कीया  गया़ । ये यूपीऐससी का इतिहास रहा है की जब जब छात्र आंदोलित हुए है उसके अगले  वर्ष परिणाम अचछे  रहे है। मुझे जहा तक याद हे वर्ष २००४ -२००५ में प्रथम पांच में हिंदी माध्यम के भी दो अभ्यर्थी थे।  आम तौर  पर प्रथम  पंद्रह या पचीस में से एक दो  माध्यम के चयनित  होते रहे हे।  मजेदार बात यह हे की जैसे ही आंदोलन या हिंदी के साथ भेदभाव का हो हल्ला  होता हे उसके अगले ह वर्ष फिर  प्रथम पचीस  में हिंदी माध्यम के कुछ और छात्र जगह बनाते हे।
 
                                          हमेशा  प्रथम पन्द्रह  या पचीस में से  एक दो स्थान आना संदेह  पैदा करता रहा हे। या तो ये माना जाए की आजतक हिंदी माध्यम का कोई भी अभ्यथी प्रथम स्थान पाने लायक मान सिक स्टर  का रहा ही नहीं या ये माना जाये की उनके साथ साक्षात्कार में भेदभाव होता हे और उन्हें काम अंक दिए जाते हे। कुछ लोग ये भी मानते हे की मानक पाठ्य  सामग्री ( दिलजले -- बाजीराव /श्रीराम / THE हिँदू  पढ़े )  के अभाव में हिंदी माध्यम के ज्यादातर अभ्यर्थी चयन के लायक ही नहीं होते। ये तो यू पी ऐस सी उन्हें कृपा करके ले लेती हे। जाहिर हे जिन्हे जो तर्क सूट करेगा वो  उसे ही मानेगे / सच क्या हे ये जब तक RTI me उत्तरपुस्तिकाओं की  प्रतिया ना मिले नहीं जाना जा सकता।


                                         मेरा मानना  हे की समान्य अध्यन में  मानक पाठ्य   सामग्री  का  आभाव  व साक्षातकार  में किसी  अंगेरजीदा  के बोर्ड में पड  जाना ही निर्णायक होता रहा हे।  दबे  स्वर में ये सवाल भी उठाये  जाते  हे की ही सामान्य अध्यन्न  में उत्तरपुस्तिकाए सामान्यत अंगरेजी भाषी विद्वानही   जांचते हे  जिनकी हिन्दी बस काम    चलाऊ  बोल चल लायक होती हे।  ऐसे विद्वान  हिंदी में गुणवत्तापूर्ण लेखन को नहीं समझा  पाते हे और औसत नम्बर  देकर परीक्षण  की   इतिश्री  कर    लेते हे।  अगर  ऐसा  नहीं   होता    तो आखिर UPSC को उत्तरपुस्तिकाओं की फोटोकॉपी RTI के तहत  देने में हर्ज ही क्या हे। न्याय  होना ही नहीं चाहिए न्याय होता हुआ दिखना भी चाहिए। इस मामले एक और  उदाहरण दर्शनशात्र जैसे विषय का  है जिसमे सामान्यत हिंदी माध्यम के छात्र ही 350  से अधिक अंक लाते रहे है। दबे स्वर में लोग मजे लेते हुए कहते हे दर्शनशास्त्र की उतरपुस्तिकाए  आम तोर पर राजस्थान या उत्तर  प्रदेश के ही विद्वान जांचते   हे जिनकी सिर्फ भारतीय अदर्शन पर ही  अच्छी पकड़  होती हे। हिन्दीभाषी होते हे जिससे सामान्यत अंग्रजीभाषी छात्र के साथ न्याय हो पाना मुश्किल हो जाता हे। क्योकि समकालीन दर्शन जैसे विषय पर पुरे भारत में २ या ३ अच्छे विद्वान हे बाकि के लिए किसी अंग्रजी माध्यम के छात्र  द्वारा लिखे गये गुणवत्ता पूर्ण उत्तर को समझाना मुश्किल हो जाता हे अत  वह भी औसत नम्बर के शिकार होते हे।  पर हिंदी माध्यम में यह अन्याय जहा सामान्य हे वही अंगरेजी माधयम में यह सिर्फ एक अपवाद हे।

                                       ज्यादातर हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों में से 80 % के आसपास  ऐसे होते हे जो जयादातर अंगरेजी की ही पाठ्यसामग्री को अपने अध्यन का आधार बनाते हे।  चाहे वो थे हिन्दू पढ़ना हो या EPW या फिर किसी  अंग्रजी माध्यम के कोचिंग के नोटस हो।  पर समयसीमा में बंधे प्रश्नपत्रों  में लिखने  के लिए हिंदी या अपनी मातृभाषा (तमिल , तेलगु ,मलयालम )  अपने आपको ज्यादा  सहज  पाते है। इसका यह अर्थ  कदापि नहीं लिया जाना चाहिए की अंगरेजी के आलावा  अन्य भाषाओ में परीक्षा देने वाले अंग्रजी नहीं जानते। कुछ हिन्दी भाषी अभ्यर्थी अपने आपको तयारी की लम्बी अवधी के दोरना ही  पूरी तरह से  अंग्रजी माध्यम के समकश  जाते है पर फिर भी मुख्या परीक्षा और िनिबन्ध में सहज प्रवाह में किखने हेतु हिंदी माध्यम को बनाये रखते हे जिसका उन्हें नुक्सान भी उठाना पड़ता है। यह तथ्य इस बात से भी पुष्ट होता हे की इंग्लिश अनिवार्य के  पेपर में पास होने के लिए अंग्रजी पढ़ने व लिखने की सामान्य से अधिक ही योग्यता चाहिए।  अगर हिंदी माध्यम का अभ्यर्थी अंग्रजी की  अध्यन सामग्री से  पढ़कर दे  तो भी इकोनोमिक्स व साइंस एंड टेक्नोलॉजी में नमबर काम ही आते है। में  स्वय भी इसका शिकार रहा  हु।  दो साल  तक इन विषयो  पढ़ लेने और पेपर अच्छे होने के बावजूद भी नतीजा धक के तीन पात ही रहा।

                                             जब सी सेट लागू हुआ था तभी हम जैसे लोग इसके धुर विरोधी थे क्योकि इसके प्रस्ताव में ही यह निहित था की अबसे प्रीलिम्स आईआईएम, आई आई टी, और इंजनियरिंग  और बैंक पी ओ  की तैयारी करने वालो की बपोती बनकर रह जाएगा।   वो  CAT की तैयारी करने के साथ साथ वो जब  चाहे प्रीलिम्स देंगे  . समय हुआ तो मुख्या परीक्षा देंगे  अन्यथा अपने मूल एग्जाम कैट पर ही ध्यान देंगे।  एक तरह से आईएएस की परीक्षा में उन लोगो की भरमार होगी जिनका आईएएस प्रथम लक्ष्य कभी नहीं रहा। उनमे भी वही लोग अंत तक रुकेंगे जिनको कैट के द्वारा कोई अच्छा कालेज नहीं मिल जाता। यह सर्वश्रेठ चुनने के बजाये कुछ और   की शुरआत थी। बड़ी संख्या में मुखय परीक्षा को छोड़ देने वाले  अभ्यर्थियों से यही बात पुष्ट होती हे। ये वैसे ही हे की डाक्टरी की परीक्षा में नाचने और गाने या मॉडलिंग  पैरामीटर बना दिया जाये तो लोग डॉक्टर बनेंगे उनमे से आधे  ही डॉक्टरी  की कठिन पढ़ाई छोड़ भागंगे और  बचे खुचे मरीज को बगवान के पास पंहुचा देंगे। (  ऐसे प्रशासक आम जनता को ४००००/- rs की सैलेरी में कहा सुशासन  दे पायंगे वो तो १ करोड़ रुपए महीने  सैलॅरी  वाली नौकरी का खाव्ब संजोये जल्द ही  कॉर्पोरेट के सेवक  बनगे या आकंठ गंगा में डुबकी लगायंगे  )

                                           पिछले दो तीन वर्षो में इसके परिणाम सामने आ गये हे. इस वर्ष अंतिम रूप से सिर्फ 26  अभ्यर्थियों   का चयन होना इस निर्लज्जता की पराकाष्ठा हे। अंग्रजी में कार्यसाधक ज्ञान को बढ़ावा देने के बजाये उसे ही अभ्यर्थियों को बहार निकलने का रास्ता बना लेना समझ से पर है।


                                            संघ लोक सेवा आयोग  की प्रणाली में   वैसे तो और भी गंभीर मुद्दे हे जिनको सुधरने के लिए ही ये बदलाव किए  गए थे।  पर अब ये साबित हो गया हे की ज्यो ज्यो दवा की मर्ज बढ़ता गया। ये डेल्ही यूनिवर्सिटी ,JNU or अन्य िशवविद्यालये के मानविकी से पढ़ने वाले अंग्रजी भाषी विद्यार्थियों के लिए भी हानिकारक हे।  इससे मानविकी विषयो में उपलब्ध सभी अंग्रजी भाषी प्रतिभाये भी  हतोत्सहित  हुई है।  क्योकि  सी सेट के बजाये फिर CAT की  तैयारी  क्यों ना कर जाये।

                                           कुछ और भी बाते अस्पष्ट रूप से पता चली हे जैसे सी सेट में  जी के और सी सेट के क़्वालीफआई अंक अलग अलग है।  मुख्या परीक्षा में हिंदी में जहा 10 % अंको पर ही पास कर दिया जाता है  बही अंग्रजी में 33 % पर वो भी कठिन पेपर  देकर। अगर ये मानक वास्तव में ही  सत्य हे तो ये तो वैसा ही हे जैसे किसी को कान उमेठकर या पिछवाड़े पर लात मारकर बाहर निकाला जाता है।

                                             तो हिंदी  भाषियों  को सरकार से सी सेट और आई ए ऐस परीक्षा का अंग्रजी के झुकाव वाला दृश्टिकोण बदलने के बजाय सविधान में लिखित मूल अधिकार लोक नियोजन में अवसर की समानता  को मिटाने के लिए कहा जाना चाहिए।


                                          हिंदी माध्यम और अन्य देशी भाषाओ में दी जा रही शिक्षा व विद्यालय पर पूरी  तरह से बेन  लगा दिया जाना चाहिए। ताकि कल को कोई  बेटा या बेटी अपने बाप से  ये ना  पूछे   क्यों आखिर  मुझे हिंदी के  स्कूल पढ़ाया  ?? क्या  आपके पास  दो जून की रोटी के साथ साथ मुझे इंग्लिश स्कूल में पढ़ाने लायक भी पैसे नहीं थे ? और बेचारा  बाप  शर्म से  आखे जमीन में गड़ाए  सोचता रहे  की  आखिर  अंग्रजी  को विकास का  पुल  बनाने का दवा करने वालो ने ना जा ने  कोण कोनसे नियम बनाकर उस पल  खड़ा करके  एक मजबूत दीवार बना दी  जिसे  वो तो क्या उसकी सात  पीढ़िया  भी नहीं लाँघ पाएँगी। क्यों  नहीं धरती  फट  जाती  और वो उसमे  समा  जाता ?
 

                                  लेखक द्वारा व्यक्त विचार पूर्णत निजी  हे , लेखक तथ्यों की सत्यता का दावा  नहीं करता।  अधिकांश तथ्य  लेखक  के स्वयं  तैयारी के दौरान हुए अनुभवों व सुनी  सुनाई बातो पर आधारित है। पाठक विवेकानुसार अपनी  धारणा बनाये।

 

4/01/2014

Acid attacks on women


Great news ,today on 1 st April Govt of India passed 
A ordinance that acid sells in open market is banned totally.
However it can be used for industrial purposes under strict 
Rules and regulation. Finally the deaf and dumb  Indian govt 
And their high incentive paid babus of India (Gandhi chap paper frame of India)
understands the logic behind restrictions on sell of acid in open market.As 
Toilets can be cleaned by simple washing powder or by harpic type products .
(Jiddi dag me he kitanu).Finally  the patriarchal structure of power understands that a women's life Is more precious than the so called cleaning of toilets .It is a rumour in corridors that a illegal daughter of a very high profile leader of national politics were became a victim of acid attack.
Than the govt finally take the decision one step ahed from supreme court decision (prohibition).
Which converts now from  prohibition and restrictions to a total ban.it is also felt 
In media that govt want to impress the 50%voters of India called Aadhi Aabadi (women)

Irony of our time that it is only a news for 1 st April .How helpless we are?
The  problem can be resolved(80%)  by a simple ordinance of govt of India.
But nobody has time to think or put forward a proposal and make them agree about need of a ordinance .As the person who can think or wand todo something good is seen everywhere in corners Or out side from so called steel frame (now it is paper frame)of India .

Don't be Serious  it's only a April fool news. As we the people of India can laugh on 
ourselves To remain positive as usual .

3/31/2014

1%of total revenue will be granted as reward to division and ranges

Today 
I heard a very good news.
Our FM approved the reward policy for 
CBDT&CBEC officials and employees 
Upto the rank of inspector.
Policy prescribes that a sum of 1% of total revenue 
Collected by field formations ( as commissionerate,divisions 
And ranges), will be granted as reward to the officers working
 in respective ranges and division as per their revenue collection.
The brode rules for distribution of rewards Will be published soon.
It was felt that it encourages the officers to collect more revenue 
And abolish the curreption .however I guess it is a populist policy 
For election to attract the votes of lacs of employees working under
CBDT And CBEC. Further it is not sure that the next govt will agree 
To continue or implement this reward policy.however in my opinion 
This is the right step in the era of globalisation .ultimately how a 
person can be responsible for collection of 300 -400 crores of 
revenue With the salary of 50000 with no rewards for his/her efferts .

Created by Rakesh Jain on 1 st April 2014😀
Have fun.



3/17/2014

होली

होली का त्योहार ,
           हर्ष हो अपार।
रंगों की बौछार ,
          जीवन हो ख़ुशियों से सरोबार ।
पल पल रंग बदलें ख़ुशियाँ ,
            जीवन ना हो कभी उदास।
सतरंगी इंदधनूष सा जीवन हो,
       सामंजस्य ,सोहाद् से हो सरोबार ।
छँटा इदधनूषी रंगों की ,
       बिखरे आप के घर द्वार ।
                   राकेश जैन।


1/24/2014

धूम -3 --Dhoom-3

                                                           धूम -3  एक बड़ी हि  सामान्य सी  फ़िल्म लगी। आमिर खान अपनी फिल्मो के   चयन और जी जान से जुटकर मेहनत करने के लिए जाने जाते है, लेकिन  इस फ़िल्म   को देखकर निराशा सी हुई। फ़िल्म  में काफी पैसा लगाया हे और मेहनत   भी कि गई हे। लेकिन कुल मिलाकर फ़िल्म कि स्टोरी में ही जान नहीं थी। इस जमाने में किसी एक बेंक के पीछे पद जाना वो भी सिर्फ इस वजह से कुछ जमा नहीं।  जैसा कि आजकल का सामान्य पढ़ा लिखा अपराधी भी यह जानता हे कि इस तरह केअमानवीय  व्यहार  के  पीछे घृणित-पूंजीवाद (crony capitalism ) ही है  और वह किसी एक व्यक्ति या बैंकर  को मारने या बैंक लूटने से ख़तम नहीं होगी।
                                                   
                                                  बेहतर होता मूवी को सुब प्राइम मार्गेज से उपजे संकटो से जोड़ा  जाता और नायक या खलनायक उसके दष्प्रभावो को सामने लाते हुए  बेबस मानवीयता को सामने रखता। आखिर  500  करोड़ रुपये कमाने वाली मूवी से इतनी उम्मीद तो कि ही जा सकती हे।
                                              
                                                 फ़िल्म कि शुरुआत बहुत ही ख़राब है। अभिषेक बच्चन  और उदय चोपड़ा  के ऑटो वाले दृश्य ऐसा लगते हे कि जेसे कोई घटिया  साउथ इंडियन  हिंसक मूवी  देख रहे हो।अभिषेक के चेहरे  पर कोई भाव नहीं आते है और उदय चोपड़ा के पुराने जोक्स इरिटेट करते है। अगला सीक्वल  बनाते समय आदित्य  चपड़ा इनसे निजात पा ले तो बेहतर होगा।  बैंक रोबरी  पर ज्यादा  अच्छी प्लानिंग और फिल्मांकन के साथ हम  डॉन-3  ,रेस -2 देख चुके है। फर्स्ट हाफ में फ़िल्म बहुत झिलाऊ है। सेकंड हाफ में दोनों भाईयो कि tuning   से ही स्टोरी जमती हे। बाइक  रेस के दृश्य अच्छे है और फ़िल्म की जान  भी है। हालाकि मेट्रो ट्रैन को मोटे तार   पर क्रॉस करते समय कोई भी बाइकर पर गोली नहीं चलाता यह समझ से परे है। ऐसे दृश्य सलमान खान टाइप फिल्मो दबंग  ,सिंघम आदी में ही अच्छे लगते हे।
                 
                                              ध्यान से देखा जाये तो  आमिर खान कि पिछली २-३ फिल्मो में तलाश ,धोबीघाट   जेसी फिल्मे हे जो कि उतनी सफल नहीं हुई। हलाकि फ़िल्म समीक्षा कि दृष्टि धोबीघाट  एक बेहतर फ़िल्म थी लकिन व्यसाय अच्छा  नहीं कर पाई क्योकि वो एक साहित्यिक उपन्यास कि  तरह लगती थी। थ्री इडियट्स हर मामले  में बेहतरीन फ़िल्म थी।  फ़िल्म में कामेडी पर किया गया काम और स्टोरी ही फ़िल्म कि जान थी। आने वाली फ़िल्म पी. के से भी यही उम्मीदे  है । अंतर दरअसल दो विलक्षण प्रतिभाओ के साथ मिलकर काम करने का हे। आमिर अच्छा अभिनय कर सकते है पर स्टोरी में जान डालना और उसे कॉमेडी से भरपूर मनोरंजक बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसमे राजकुमार हीरानी को महारत हासिल है। उनकी पिछली  फिल्मो को एक वाक्य  में कहा जाये तो ----उनकी फिल्मे ऐसी हे जिहे देखते समय होंटो पर हंसी रहती है और आँखों में नमी रहती हे। आज इस दौर में  अमोल  पालेकर  और राजकपूर जेसे निर्देशको कि कमी खलती है। हीरानी और  अनुराग कश्यप को छोड़कर कोई आसपास भी नहीं हे।
         
                                               हालाकि बर्फी ,विकी डोनर , फुकरे , जब वी मेट ,वेक अप  सीड  जेसी फिल्मो के निर्देशक उम्मीदे  जगाते है। इस साल 2013 कि सबसे अच्छी फिल्मो में  मुझे 1. बर्फी  2.ये जवानी हे दीवानी 3. चैनई एक्सप्रेस 4. ओ माई गोड  लगी  और धूम -3  उनमे एक औसत देख भर लेने लायक फ़िल्म लगी।
                                             
                                              अब मुझे लगता हे कि वो समय आ गया हे कि भारतीय निर्माता  निर्देशक वैश्विक व्यवसाय करने वाली फिल्मो का निर्माण करे। क्योकि वैश्विक फिल्मे भी भारत में अच्छा कारोबार कर रही हे। लकिन उसके लिए हमें कुछ गिनी चुनी प्रतिभाओ  और दोस्तों के कुनबे से बहार निकलकर शुद्ध व्यवसायिक या कलाकार कि दृष्टी से फिल्मो  का निर्माण करना पडेगा। तब  शायद 1000  करोड़ रुपये कमाने  का लक्ष्य भी हासिल किया जा सकता है।