9/26/2009

दर्शनशास्त्र

आम तोर पर लोग जहा से सोचना बंद करते हें दर्शनशास्त्र मे लोग वहा से सोचना शुरू करते हें । अगर किसी को अपने ज्ञान पर कुछ ज्यादा ही घमंड हें और उसने दर्शन कभी पढ़ा नही तो ये जायज नही होगा । सुकरात ने कहा भी हें की जो अपने अज्ञान की सीमाओं को जानता हें वही ज्ञानी हें । यानि जो gayn की अज्ञानता को जानता हें.लादेन भी एक एन्ज्नीयर था .अधिकांश इसे लोग जो कट्टरवादी मान्यताओ से गर्स्त होते हें वो की बार उच्छ शिक्षित होते हें पर ,मानविकी मे नही बल्कि वैज्ञानिक विषयों मे । जिनमे निश्चित ज्ञान का दावा किया जाता हें । जबकि सामाजिक विषयों मे अध्ययन द्वंदात्मक होता हें .इसलिए इसे लोगो के कतार्पंथी बनने की संभावना कम होती हें.

आतंकवाद एक टेक्निक

कुछ विद्वान आतंकवाद को भी अन्याय से लड़ने की तकनीक मानते हे .मेरा मत हे की एसा कुछ ही मामलों मे सही हो सकता हे .जिन्हें पीड़ित रास्तीयाताये मानकर हिंसा को उचित ठहराया जा सकता हे। पर अल कायदा आतंकवाद -मुस्लिम विश्वव्यापी आतंकवाद को नही । क्योकि उनके पास किसी just सोसाइटी का विचार नही हे.वो तो अपनी कट्टर धार्मिक मान्यताओं के आधार पर शरीयत जेसा देवीय शाषन चहाते हें। uसकी व्याख्या का अधिकार भी उनके पास ही हें .ख़ुद पर शासन करने के अन्य लोगो के अधिकार को भी वे नही मानते .उन्हें अपने अनेतिक कार्यो के लिए अमेरिका की भाति किसी wmd वेपन जेसे मुखोटे की भी जरुरत नही हें । स्पस्ट हें की आतंकवाद का यह रूप ही विश्वशांति के लिए खतरा हें न की अन्य स्थानीय पक्र्ती के आन्दोलन .और इसे किसी भी आधार पर justify नही किया जा सकता .इसे उचित ठहराना इसमे व अन्य जायज हिसात्मक आंदोलनों मे फर्क न कर पाने के कारण हें । मार्क्सवादी चश्मे से तो ख़ुद को मारने आया किक्लर भी सामाजिक परिस्थीथीका उत्पाद नजर आता हें .

दलित महिलाये.

सवर्ण महिलाये परजीवी की परजीवी हे और दलित महिलाये गुलाम की गुलाम .

किस्मत

किस्मत तो उनकी भी होती हे जिनके हाथ नही होते.

हार-जीत

आप तब तक नही हराते जब तक की आप सचमुच अपने आपको हारा हुआ नही मान लेते.दोड़ मे की बार पहले आने वाले और अन्तिम स्थान वाले धावक का पता होता हे फ़िर भी विजेता तब तक घोषित नही किया जा सकता जब तक की दोड़ पुरी न हो जाए । यानि कभी घुटने न टेके आप तब तक नही हारते जब तक आप सचमुच हार नही जाते .