6/02/2007
माँ ,बेटी,बहन ,पत्नी ----बाप बेटा ,भाई पति
महिलाओ से एसी पकेशाये ओर पुरुषो से नही .दोहरे पर्तिमानो कि सूचक हे .जिस पार्कर पुरुष जीवन भर पुरुष बने रहकर अन्य भिमिकाओ को निभाता हे वेसे स्वतंत्रता स्त्री को प्राप्त नही हे .इन आदर्शो को आरोपण का ही परिणाम हे कि इनसे विचलन अक्श्य्म अपराध समझा जता हे ओर उन्हें कुलटा बेहया ओर जमीन मे गाड़कर पथ्रो से मारने तक कि सजा दी जति रही हे जबकि पुरुषो मे इन आदर्शो का आरोपण ना करके उन्हें इस मामले मे छूट दी जाती रही हे .सवाल ये कि हम स्त्री व पुरुष को अक जेअया क्यो नही मान सकते --- नारी तुम केवल शर्दा हो विस्वास रजत नभ पग तल मे --ओर इससे नीचे उतरी तो मे तुम्हे गला दबाकर मार डालूँगा । हां हां इसका स्वाभाविक परिणाम तो यही हे । ए मानाने मे क्या समस्या हे कि स्तरीय भी पुरुषो कि भाती सिर्फ इन्सान हे भगवान् नही । उन पर अक हद से ज्यादा आदर्शो का आरोपण उनके लिए अन्याय कि पर्स्थ्भुमी तैयार कर्ता हे .वाही बात हे कि जिस दश मे दुर्गा कि पूजा होती हे उसी मे इन्हें पत् मे ही मार दिया जता हे .हलाकि माँ कि भूमिका विशेष हे इसमे ये तर्क लागु नही किया जा सकता । मे भी प्रेमचंद जी ई इस बात को मानता हु कि --एक स्त्री मे अगर पुर्ष के गुन आ जाये तो वह कुलटा हो जति हे लेकिन अगर अक पुरुष मे स्त्री के गुन आ जाये तो वह संत हो जता हे । । फिर भी इन बातो को अक हद से आगे खीचा जाना अन्याय कि पर्स्थ्भुमी तयार कर्ता ह .
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अर्धांगिनी
नारीवाद व महिला sashaktikarna को बढावा देने के लिए स्कुलो ओर कालेजो मे होने वाले विमाषा ओर वद्द विवादी ,निबंधो मे जुमले कि तरह दो उदाहरण भूत पेश किये जाते हे .एक तो
अर्धांगिनी शब्द ,दुसरा यात्रा नारी पुज्यनते राम्नते तत्र देवता का । मेरी समझा मे ये दोनो हमारे गहरे तक शामिल प्त्र्सत्तावादी संसकारो के ही सूचक हे ना कि समानता के ॥ अर्धांगिनी शब्दा अच्छा हे पर ये भी नारी को पुरुष का आधा हिस्सा बताता हे यानी नारी कि याख्या पुरुष के हिस्से के रूप मे कि जाती हे .यानी अगर पुरुष ना हो तो नारी का आस्तिताव ही संभव नही हे क्योकि वो उसका आधा हिस्सा हे .मगर पुरुष के लिए एसा कोई शब्द नही हे कि वो नारी के शरीर का आधा हिस्सा हे । । अता सुच बात तो यही हे कि अर्ध्न्गिनी शब्दा नारी को वस्तु से ऊपर उठाकर अपने अनन्य हिस्से के रूप मे मान्यता देता हे पर फिर भी पुँ समानता का दर्जा नही देता .आत बार इसकी रत लगाना व इसके आगे अपने विच्रो को सम्पेरिशित ना कर पाना जहा शिक्षा मे रत्तेपन का सूचक हे वाही हमारी सोच कि सीमाओ का भी .
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