हर कोई अपना पक्ष सही बताकर हिंसा को उ चित ठहरता हे पर इसके शिकार ज्यादातर निर्दोष ही होते हे । लंबे समय तक शत्रुता चलाने के बाद यह याद नही रहता की पहली गलती किसने की । की बार पीढियों से लड़ रहे लोगो जेसे कबीलों मे ,को यह याद नही रहता की वो लड़ क्यो रहे हे । पहली गलती छोड़कर लादी का कारन भी याद नही होता । बस लड़ रहे हे .पिछले ५-७००० सालो आदमी लड़ ही तो रहा हे । एक दुसरे के ख़िलाफ़ कभी यक्तिगत तो कभी कबीले परिवार या रास्त्र के रूप मे । लड़ने से समस्या हल हो जाती तो कबकी हो गा ई होती .युवाओ मे हिंसा के पार्टी कुछ ज्यादा ही आकर्षण पाया जाता हे । तात्कालिक रूप से कभी कभी ये फायदा भी पहुचा सकती हे पर इसे एक निति के रूप मे अपनाने के गंभीर परिणाम हो सकते हे । स्याम के पार्टी हिंसा की संभावनाओं से हमें शा आशंकित रहना । डर कर जीन तो कोई अची जिंदगी नही हे
.ves e bhi jo svayam ko
5/21/2009
बेटी--बहु
भारतीय मध्य वर्ग की बड़ी अजीब विडम्बना हे । जब बहु धुधाने जात एहे तो चाहते हे की इसी बहु मिले जो भुधापे मे चन से दो रोटी रख दे और दुत्कारे न । यानि संयुक्त परिवार के लिए ठीक हो और उन शर्तो को मानाने के लिए राजी हो । पर जब बेटी के लिए रिश्ता देखने जाते हे तो कोशिश यही करतेव हे की लड़का एसा मिले जिस पर माँ बाप और छोटे भाई बहनों का भर न हो । ये दोनों बातें एक साथ सही केसे हो सकती हो । .बहु धुन्द्ते समय सम्मने वाले पक्ष को ग़लत नही ठराया जा सकटा और बेटी ब्याहते समय अपने आपको । हे पर हकीकत हमारे समज की । सब वाही पर दूसरो मे खामी या गलतिया निकलते हे
फिराक
नंदिता दास बड़ी गहरी अभिनेत्री हे । अत उनकी बनायी फ़िल्म से भी बड़ी उमीदे थी । पर इतनी एकपक्षीय फ़िल्म आज तक नही देखि । फ़िल्म मे सब सही हे । पर ये सब कोई हुआ और इनकी शुरुआत के लिए भी कोई चिंगारी कहा से आई । हद हे की पुरी फ़िल्म मे गोधरा तरणमेजलाये जाने की घटना तक का उल्लेख भी नही किया गया हे । इसे देखकर तो लगता हे की इतना गंभीर अन्याय एकपक्षीय होता और मे एक मुस्लिम होता और मे सिर्फ़ फ़िल्म को अन्तिम सत्य मानता तो आतंकवादी बन सकता था । ये तो वाही बात हे की आप एक पक्ष को बिल्कुल निर्दोष दिखाकर दूसरो के पार्टी हिंसा के लिए प्ररित कर रहे हे .
खुदा के लिए और ब्लेक एंड व्हाईट देखिये .पता नही नंदिता को क्या हो गया हे । सिर्फ़ पशिमी आलोचकों की पर्शंशा पाने के लिए वाकई उनकी आँखों पर बड़ा मोटा चश्मा चढ़ गया हो या फ़िर मेरी आँखों पर की सच दिखाई नही देता ।
खुदा के लिए और ब्लेक एंड व्हाईट देखिये .पता नही नंदिता को क्या हो गया हे । सिर्फ़ पशिमी आलोचकों की पर्शंशा पाने के लिए वाकई उनकी आँखों पर बड़ा मोटा चश्मा चढ़ गया हो या फ़िर मेरी आँखों पर की सच दिखाई नही देता ।
चुनाव
योगेन्द्र यादव ने अपने लेखो मे भारतीय चुनावो से जुड़े कई मिथक तो०दे हे । मुस्लिम मतदाताओ का मत पर्तिशत भी अन्य के सामान ६० पर्तिशत के आस पास ही रहता हे । युवा पशिमी युवाओ से अलग हे वहा संयुक्त परिवार नही होते । यहाँ युवा समाज की मुख्य धारा और परिवार से जुड़े होते हे । अत उनके वोट भी लगभग सामान्य परवर्ती दर्शाते हे .जाती आधार पर मतदान निर्णायक नही होता । । ये फायदा जरूर करता हे .
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