धूम -3 एक बड़ी हि सामान्य सी फ़िल्म लगी। आमिर खान अपनी फिल्मो के चयन और जी जान से जुटकर मेहनत करने के लिए जाने जाते है, लेकिन इस फ़िल्म को देखकर निराशा सी हुई। फ़िल्म में काफी पैसा लगाया हे और मेहनत भी कि गई हे। लेकिन कुल मिलाकर फ़िल्म कि स्टोरी में ही जान नहीं थी। इस जमाने में किसी एक बेंक के पीछे पद जाना वो भी सिर्फ इस वजह से कुछ जमा नहीं। जैसा कि आजकल का सामान्य पढ़ा लिखा अपराधी भी यह जानता हे कि इस तरह केअमानवीय व्यहार के पीछे घृणित-पूंजीवाद (crony capitalism ) ही है और वह किसी एक व्यक्ति या बैंकर को मारने या बैंक लूटने से ख़तम नहीं होगी।
बेहतर होता मूवी को सुब प्राइम मार्गेज से उपजे संकटो से जोड़ा जाता और नायक या खलनायक उसके दष्प्रभावो को सामने लाते हुए बेबस मानवीयता को सामने रखता। आखिर 500 करोड़ रुपये कमाने वाली मूवी से इतनी उम्मीद तो कि ही जा सकती हे।
फ़िल्म कि शुरुआत बहुत ही ख़राब है। अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा के ऑटो वाले दृश्य ऐसा लगते हे कि जेसे कोई घटिया साउथ इंडियन हिंसक मूवी देख रहे हो।अभिषेक के चेहरे पर कोई भाव नहीं आते है और उदय चोपड़ा के पुराने जोक्स इरिटेट करते है। अगला सीक्वल बनाते समय आदित्य चपड़ा इनसे निजात पा ले तो बेहतर होगा। बैंक रोबरी पर ज्यादा अच्छी प्लानिंग और फिल्मांकन के साथ हम डॉन-3 ,रेस -2 देख चुके है। फर्स्ट हाफ में फ़िल्म बहुत झिलाऊ है। सेकंड हाफ में दोनों भाईयो कि tuning से ही स्टोरी जमती हे। बाइक रेस के दृश्य अच्छे है और फ़िल्म की जान भी है। हालाकि मेट्रो ट्रैन को मोटे तार पर क्रॉस करते समय कोई भी बाइकर पर गोली नहीं चलाता यह समझ से परे है। ऐसे दृश्य सलमान खान टाइप फिल्मो दबंग ,सिंघम आदी में ही अच्छे लगते हे।
ध्यान से देखा जाये तो आमिर खान कि पिछली २-३ फिल्मो में तलाश ,धोबीघाट जेसी फिल्मे हे जो कि उतनी सफल नहीं हुई। हलाकि फ़िल्म समीक्षा कि दृष्टि धोबीघाट एक बेहतर फ़िल्म थी लकिन व्यसाय अच्छा नहीं कर पाई क्योकि वो एक साहित्यिक उपन्यास कि तरह लगती थी। थ्री इडियट्स हर मामले में बेहतरीन फ़िल्म थी। फ़िल्म में कामेडी पर किया गया काम और स्टोरी ही फ़िल्म कि जान थी। आने वाली फ़िल्म पी. के से भी यही उम्मीदे है । अंतर दरअसल दो विलक्षण प्रतिभाओ के साथ मिलकर काम करने का हे। आमिर अच्छा अभिनय कर सकते है पर स्टोरी में जान डालना और उसे कॉमेडी से भरपूर मनोरंजक बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसमे राजकुमार हीरानी को महारत हासिल है। उनकी पिछली फिल्मो को एक वाक्य में कहा जाये तो ----उनकी फिल्मे ऐसी हे जिहे देखते समय होंटो पर हंसी रहती है और आँखों में नमी रहती हे। आज इस दौर में अमोल पालेकर और राजकपूर जेसे निर्देशको कि कमी खलती है। हीरानी और अनुराग कश्यप को छोड़कर कोई आसपास भी नहीं हे।
हालाकि बर्फी ,विकी डोनर , फुकरे , जब वी मेट ,वेक अप सीड जेसी फिल्मो के निर्देशक उम्मीदे जगाते है। इस साल 2013 कि सबसे अच्छी फिल्मो में मुझे 1. बर्फी 2.ये जवानी हे दीवानी 3. चैनई एक्सप्रेस 4. ओ माई गोड लगी और धूम -3 उनमे एक औसत देख भर लेने लायक फ़िल्म लगी।
बेहतर होता मूवी को सुब प्राइम मार्गेज से उपजे संकटो से जोड़ा जाता और नायक या खलनायक उसके दष्प्रभावो को सामने लाते हुए बेबस मानवीयता को सामने रखता। आखिर 500 करोड़ रुपये कमाने वाली मूवी से इतनी उम्मीद तो कि ही जा सकती हे।
फ़िल्म कि शुरुआत बहुत ही ख़राब है। अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा के ऑटो वाले दृश्य ऐसा लगते हे कि जेसे कोई घटिया साउथ इंडियन हिंसक मूवी देख रहे हो।अभिषेक के चेहरे पर कोई भाव नहीं आते है और उदय चोपड़ा के पुराने जोक्स इरिटेट करते है। अगला सीक्वल बनाते समय आदित्य चपड़ा इनसे निजात पा ले तो बेहतर होगा। बैंक रोबरी पर ज्यादा अच्छी प्लानिंग और फिल्मांकन के साथ हम डॉन-3 ,रेस -2 देख चुके है। फर्स्ट हाफ में फ़िल्म बहुत झिलाऊ है। सेकंड हाफ में दोनों भाईयो कि tuning से ही स्टोरी जमती हे। बाइक रेस के दृश्य अच्छे है और फ़िल्म की जान भी है। हालाकि मेट्रो ट्रैन को मोटे तार पर क्रॉस करते समय कोई भी बाइकर पर गोली नहीं चलाता यह समझ से परे है। ऐसे दृश्य सलमान खान टाइप फिल्मो दबंग ,सिंघम आदी में ही अच्छे लगते हे।
ध्यान से देखा जाये तो आमिर खान कि पिछली २-३ फिल्मो में तलाश ,धोबीघाट जेसी फिल्मे हे जो कि उतनी सफल नहीं हुई। हलाकि फ़िल्म समीक्षा कि दृष्टि धोबीघाट एक बेहतर फ़िल्म थी लकिन व्यसाय अच्छा नहीं कर पाई क्योकि वो एक साहित्यिक उपन्यास कि तरह लगती थी। थ्री इडियट्स हर मामले में बेहतरीन फ़िल्म थी। फ़िल्म में कामेडी पर किया गया काम और स्टोरी ही फ़िल्म कि जान थी। आने वाली फ़िल्म पी. के से भी यही उम्मीदे है । अंतर दरअसल दो विलक्षण प्रतिभाओ के साथ मिलकर काम करने का हे। आमिर अच्छा अभिनय कर सकते है पर स्टोरी में जान डालना और उसे कॉमेडी से भरपूर मनोरंजक बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसमे राजकुमार हीरानी को महारत हासिल है। उनकी पिछली फिल्मो को एक वाक्य में कहा जाये तो ----उनकी फिल्मे ऐसी हे जिहे देखते समय होंटो पर हंसी रहती है और आँखों में नमी रहती हे। आज इस दौर में अमोल पालेकर और राजकपूर जेसे निर्देशको कि कमी खलती है। हीरानी और अनुराग कश्यप को छोड़कर कोई आसपास भी नहीं हे।
हालाकि बर्फी ,विकी डोनर , फुकरे , जब वी मेट ,वेक अप सीड जेसी फिल्मो के निर्देशक उम्मीदे जगाते है। इस साल 2013 कि सबसे अच्छी फिल्मो में मुझे 1. बर्फी 2.ये जवानी हे दीवानी 3. चैनई एक्सप्रेस 4. ओ माई गोड लगी और धूम -3 उनमे एक औसत देख भर लेने लायक फ़िल्म लगी।
अब मुझे लगता हे कि वो समय आ गया हे कि भारतीय निर्माता निर्देशक वैश्विक व्यवसाय करने वाली फिल्मो का निर्माण करे। क्योकि वैश्विक फिल्मे भी भारत में अच्छा कारोबार कर रही हे। लकिन उसके लिए हमें कुछ गिनी चुनी प्रतिभाओ और दोस्तों के कुनबे से बहार निकलकर शुद्ध व्यवसायिक या कलाकार कि दृष्टी से फिल्मो का निर्माण करना पडेगा। तब शायद 1000 करोड़ रुपये कमाने का लक्ष्य भी हासिल किया जा सकता है।