हैदर - एक समीक्षा
1."मेरी मोत का इंतकाम लेना मेरे बच्चे , उसकी उन दो आँखों में गोलिया दागना जिन आँखों से उसने तुम्हारी माँ पर फरेब डाले थे "
२. "हम तब तक आजाद नही होते जब तक की हम अपने इंतकाम से आजाद नही हो जाते।"
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1."मेरी मोत का इंतकाम लेना मेरे बच्चे , उसकी उन दो आँखों में गोलिया दागना जिन आँखों से उसने तुम्हारी माँ पर फरेब डाले थे "
२. "हम तब तक आजाद नही होते जब तक की हम अपने इंतकाम से आजाद नही हो जाते।"
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पहली नजर में हेडर एक परफेक्ट मूवी लगती हे। एक दूसरी नजर से बदले और इंतकाम तथा अहिंसा के रस्ते के बीच सही रस्ते के चुनाव की बहस को आगे बढ़ाती हे। फिल्म के हीरो शहीद कपूर नजर आते हे पर पूरी कहानी की जेड मुख्या महिला पात्र तब्बू के इर्द ग्रिड घूमती हे। फिल्म पुरुष की आजादी के मायने और महिला की आजादी के मायनो से भी जूझती हे. पुरुष के लिए जहा राजनितिक आजादी ही आजादी हे वही महिला एक सामान्य जीवन के लिए भी अपनी दबी कुचली इच्छाओ के बीच यवक्तिगत आजादी की तलाश करती हे। और सामान्य शब्दों में जिसे बेवफाई कहा जाता हे उसी में अपनी जिंदगी की परिणीती देखती हे।
पटकथा थोड़ी ड री हुई सी लगती हे। फिल्म की मुस्लिम कश्मीर की पृष्टभूमि में सभी धर्मो में फैले पुरुषवादी व्याख्याओं और महिला शोषण पर चोट करने का अवसर था। पर जैसा की सामान्यत होता हे सारी कलात्मकता और स्वतंत्रता का इस्तेमाल केवल उदार धर्मो की सही- गलत आलोचना में ही किया जाता हे। कट्टर धर्मो की आलोचना में किसी भी कविता/कहानी /पेंटिग से प्रसिद्धी के फायदे से ज्यादा हिंसात्मक आलोचना का डर होता हे। और हर कोई तस्लीमा नसरीन जितना हिम्मती हो ही ये उम्मीद भी नहीं की जा सकती हे. हालांकि निर्देशक ने मूल विषय के साथ न्याय किया हे। इसलिए उसे महिला शोषण की चित्रित ना करने क दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
फिल्म का एक बहुत ही क्रांतिकारी पक्ष बेटे के प्रति माँ का प्यार है । माँ ,बेटे और अन्य पुरुष के प्रेम में किसे चुने यही द्व्न्द हे। बेटा पिता से ज्यादा प्यार करता हे और उनके अपमान का बदला लेना चाहता हे पर वो माँ से भी प्यार करता हे। पूरी कहानी ही प्यार और नफरत के रेशो से बनी हुई हे और फिल्मकार ने उसे बखूबी चित्रित भी किया हे।
माँ और बेटे का प्यार निर्देशक ने बखूबी दिखाया भी हे। इस प्यार की यौनेच्छाओ की भी अभिव्यक्ति हुई हे। पर निर्देशक ने भारतीय पृष्ठभूमि का ख़याल रखते हुए उसे प्रतीकात्मक रूप से ही दिखाया हे।इससे ज्यादा भारतीय दर्शक पचा भी नहीं पाते। अनिल कपूर अभिनीत लम्हे इसका एक उदाहरण हे। मुस्लिम पृष्भूमि के चयन की एक वजह यह भी रही हो। क्योकि मुस्लिम विधि के अनुसार विवाह या निकाह एक तरह का सौदा या समझोता हे पर मुस्लिम धर्म में भी खून के रिश्तो में निकाह वर्जित हे.
फिल्म के कुछ डायलाग बड़े अच्छे/ प्रभावशाली हे।
१. " मेरी मोत का इंतकाम लेना मेरे बच्चे , उसकी उन दो आँखों में गोलिया दागना जिन आँखों से उसने तुम्हारी माँ पर फरेब डाले थे "२. हम तब तक आजाद नही होते जब तक की हम अपने इंतकाम से आजाद नही हो जाते। ३. इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होता हे आजादी नहीं। ४. क्या सच हे क्या झूठ ,झूठ ही सच हे सच ही झूठ,५. चुसपआ --आफ्सा
फिल्म का मेन प्लाट हालांकि प्यार और नफ़रत और बदले की कहानी हे पर इस बहाने ये आजादी , इंतकाम , हिंशा ,अहिंषा की अवधारणाओं से भी जूझती हे. फिल्म कश्मीर पर लिखी एक किताब से जरुरी तथ्य उठती हे। पर संतुलन के नाम पर एक दो जगह कश्मीरी पंडितो के पलायन का उल्लेख भर करके काम चला लेती हे। अच्छा होता उस डोर में कश्मीरी पंडितो पर किये गये अत्याचारों को भी फिल्म में थोड़ी जगह दी जाटी तो इसे सही मायनो में न्यूट्रल कहा जा सकता था। पर निर्देशक ने एक जगह तीन लाख पंडितो के पलायन का उल्लेख कर अपने कर्त्यव्य कि ईटी श्री कर ली। बेहतर होता निर्देशक किसी मुस्लिम कश्मीरी नजरिये से लिखी पुस्तक को आधार बनाने के बजाये स्वयं १९४७ से अब तक के घटनाकर्म पर उपलब्ध साहित्य का अध्ययन कर कहानी बुनता तो तस्वीर कुछ और होती। फिल्म कश्मीर में डिस्अप्पेअर हुए लोगो का मुद्दा जोर शोर से उठती हे पर उसकी तुलना में कश्मीरी पंडितो का उल्लेख राती भर ही करती हे। डिस्अप्पेअर हुआ लोगो के आकड़ो और भरतीय सेना दवरा अवैध बंदी शिविरो ककए संचलन में कितनी सचाई हे ये नहीं कहा जा सकता लकिन अगर आकड़ो में इतनेबड़े पैमाने पर सछहाई हे तो उसे जस्टिफाई भी नहीं किया जा सकता। बेहतर हो भारतीय राज्य आतंकवाद से लड़ने के और बेहतर वेध रस्ते निकाले।
फिल्म में एक गंभीर खामी नजर आतीहै। मनोरंजन और पयार -नफरत -इंतकाम और शांति पर महत्वपूर्ण फिल्म बनाने के बावजूद फिल्म जाने अन्जीने में कुछ गलत पूर्वाग्रहों को जन्म देती हे। फिलम पूरी जांच पड़ताल किये बिना मुस्लिम कश्मीरियों के अलगाववादी आंदोलनों , आतंकवाद और उनके आत्मनिर्णय के अधिकार के प्रति सहानुभूति जगाती हे।
पहली बात तो ये हे की राष्ट्र राज्यों का उदय यूरो में वेस्टफेलिया की संधि से मना जाता हे। राष्ट्र के क्या प्रमुख तत्व हे ये हमेशा से बहस का विषय रहा हे। सामन्य रूप से किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले सामान भाषा , रीती रिवाज, सांस्कर्तिक परम्पराओ वाले जतय या नस्लीय सुमोहो को एक रास्त्र माना जाता हे। धर्म अकेला या अन्य कारको के साथ मिलकर राष्ट्र का आधार हो सकता हे या नहीं इस पर हमेशा विवाद रहा हे। विश्व के मनचत्र पर कोई भी ऐसा राष्ट्र नजर नहीं आता जो केवल धरम के आधार पर टिका हो. पाकिस्तान धरम के आधार पर बना था पर उसमे भी भाषायी दमन के कारण बांग्लादेश बना।
दूसरे आत्मनिर्णया(plebisite ) के अधिकार की बात राष्ट्र के सम्बन्ध में ही की जाती हे अन्यथा नहीं। कश्मीर में चल रहे अलगाववादी आंदोलनों का आधार धर्म हे। कश्मीरियत नाम की सामाजिक या सांस्कर्तिक विरासत नही. अगर कश्मीरियत नाम की सामाजिक या सांस्कर्तिक विरासत ही इसका आधार होती तो न आतंकवाद पैदा होता न कश्मीरी पंडित वह से भगाए जाते न मंदिरो पर हमले होते। न महिलाओ बुर्का पहनने के लिए मजबूर किया जाता , न लड़कियों के डांस/ग्रुप बैंड बंद होते।
फिल्मकार ने कश्मीरियों की इस नारकीय स्थिति को चुस्फ्पा का नाम दिया हे और निशाना आफ्सा को बनाया हे। सीधे शब्दों में कहे तो यह शब्द बहुविध भारतीयों दवरा बड़े ही रसास्वादन के साथ लिए जाने वाले चु .... ....... शब्द का ही सामनार्थी हे। बात बड़ी कड़वी लगेगी लकिन ये होता भी उनके साथ ही हे जो होते भी चु………… हे। अगर कश्मीर में आतकवाद न होता और ये आंदोलन केवल मुस्लिम कश्मीरियों का आंदोलन न होकर कश्मीरी आवाम का शांतिपूर्ण आंदोलन होता। तो न सेना वह होती न हीं आफ्सा जैसा चुस्फ्पा होता. खेर हो सकता हे में गलत होउ। में खुद नहीं जानता।
दरअसल बात यह हे की इस्लाम एक सर्वसत्तावादी धर्म हे। इस्लाम में जीने का एक तरीका हे इबादत का एक तरीका हे , खाने(हलाल ) का एक तरिका हे ,व्यापार कभी तरिका हे (सूद हराम हे ),शान सत्ता कभी एक तरीका हे , अपराधियो को दंड देने का भी एक तरिका हे। इस्लाम जीवन के हर पक्ष की व्याख्या करता हे। जिस किस ने उन तरीको ओर बहस की कोशिश की उसे इसके अनुयायियों ने मोत के घाट उतार दिया हे। मुस्लिम होकर मुस्लिम धर्म की आलोचना संभव नहीं हे इसलिए शायद हर धर्म में पुनर्जागरण आंदोलन हुए हे , जैसे वैदिक काल में जेन और बोध आंदोलन , ईसाईयो में डार्क युग के बाद रिनेसाँ जिसमे बाइबल को खुद ही पढ़कर व्याख्या करने पर बल दिया हे भले ही आलोचकों को चर्च ने ज़िंदा जला दिया हो ,पर इस्लाम में ऐसा कोई बड़ा धर्म सुधर आंदोलन नहीं दिखता जिसने धर्म को बदलते समय के साथ रीती रिवाजो को थोड़ा लिबरल किया हो। भारत में जरूर एक दो सूफी आंदोलन, अहमदिया आंदोलन जैसे हुई हे। इसलिए भारतीय मुसलमान दुनिया में सबसे लिबरल भी मने जाते हे और लाख प्रेणाओ के बावजूद अल कायफकायद जैसे संगठनो को यहाँ पैर जमने की जगह नहीं मिलि.
पर मोटे तोर पर इन इस्लाम के सर्वसत्तावादियो से पूरा विश्व अशांत हे। जहा कही बी अलगाववादी आंदोलन चल रहे हे १९९० के बाद उनमे बड़ी संख्या मुस्लिम जनसंख्या बहुल प्रदेश हे चाहे वो चेचेन हो , यूक्रेन हो , चीन का उइगर प्रदेश हो या भारत का कश्मीर। यर हर जगह मानवाधिकार और आत्मनिर्णय के अधिकारों की बात करते हे पर आपने क्षेत्रो में बेस दूसरे समुदायों को मार पीटकर अपने ष्ट्र से बहेगा देते हे। उनके अधिकारों के संरक्षण की बात नही करते। खुद के अलग राष्ट्र होने का दावा करते हे और अंतररास्तिया समुदय और तथाकथित भुधिजीवियो मांगते हे। कुछ बिचारे राष्ट्र और आत्मनिर्णय की थेओरी पढ़कर इनके चक्कर में आ जाते हे। और सोचते हे शायद इसके बाद शांति आ जाएगी। पर इन क्षेत्रो में न कभी शांति रही हे न रहेगी। पाकिस्तान अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे देश इसके जीते जागते उदाहरण हे।
हम तो भाई किसी ज़माने के नास्तिक और मार्क्सवादी होने के बावजूद इतने प्रगतिशील नहीं हो पाये हां विशाल भारद्वाज , तब्बू , शहीद कपूर शायद राष्ट्रवाद , रास्त्र ,आत्मनिर्णय के अधिकार , मुस्लिम कश्मीर और कश्मीर के फर्क को शायद अच्छे से समझते होंगे।
हमें तो भाई हिन्दू धर्म , जेन धर्म की लाख बुराई और आलोचना करने और व्यहारिक जीवन में इन धर्मो के किसी सिद्धन्त का पालन न करने के बावजूद ऐसा महसूस होता हे की अगर हम सिर्फ अपनी ही पतलून अपने हाथ से फाड़ते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब ISIS इस्लामिक स्टेट और अल कायदा जैसे संगठन हमारा सर कलम कर रहे होंगे और हम जार जार होकर उनसे कह रहे होंगे भाई में सेकुलर हु ,मै नास्तिक हु , में मार्सवादी हु , में प्रगतिशील हु , मेने तो बहुत से आतंकवादियों के मानवाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी हे.
फिल्म के बहाने आतकवाद के प्रति सहानुभूति पैदा करने वाले , मुस्लिम कश्मीरियों के आंदोलन को कश्मीर की आजादी का आंदोलन बताने वाले फिल्मकार निश्चित ही धन्य हे।
हालांकि में विशाल भरद्वाज, तब्बू जैसे फिल्मकारों के सहस को सलाम करतआहू। शेक्सपीयर की हेलमेट रचना के प्राण हूबहू उतार डीये। माँ और बेटे के प्यार को एक हद तक दिखा पाये। इंतकाम और हिंसा जैसे विषयो के विश्लेष की दृष्टि से देखा जाये तो ये एक मास्टर पीस हे। एक कालजयी फिल्म के रूप में याद की जाएगी।
हो सकता हे भारतीय हिन्दू होने की वजह से मेरी मानसिकता संकीर्ण हो और में चीजो को उनके सही संदर्भ में नहीं समझ पाया होउ. पर भारत दुनिया का सबसे जीवित और झंकृत लोकतंत्र (Live and vibrant) हे इस बात में कोई दो राय नहीं रही . भारतीय की जनता का विशाल ह्रदया/…… भी स्वागत योग्य हे जो अपनी ही सरकार और सेना की इस हद तक आलोचना को स्वीकार करती हे और एकफिल्म के रूप में दर्शक के रूप में इसे एक हिट फिल्म भी बनाती हे। दबंग के दर्शको से हैदर को समझने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। पर ये दोनों चीजे एक साथ हे। "अद्भुत भारत "
A MUST WATCH , but dont impressed with the idea of freedom for muslim kashnmir in the name of kashmir.if u dont understand the concept of self determination , nation , role of religion in nation and a holistic religion.
लेखक के विचार पूर्णत निजी हे , उनसे किसी को चोट पहुचती हो तो वो अपना इलाज करवा ले , मुझे अपने विचार व्यक्त करने की पूरी आजादी हे जैसे विशाल भारद्वाज को अपनी पूर्व निर्धारित मान्यताओ के आधार पर फिल्म बनाने की , आलोचना बिलकुल तार्किक हे। कुतर्क लगे तो सयमित शब्दों में कृपया अपने तर्को / विचारो को वाल पर लिखे या मेसेज भेजे। हो सकता हे शायद आप मेरे विचारो को बदलने में कामयाब हो जाए या शायद आयप ही अपने विचार बदल ले.हो सकता हे आप मेरे विचार बदलने में कामयाब रहे तो में भी स्वर्ग में ७२ हूरो का मजा लू।
1.मेरी मोत का इंतकाम लेना मेरे बच्चे , उसकी उन दो आँखों में गोलिया दागना जिन आँखों से उसने तुम्हारी माँ पर फरेब डाले थे "
२. हम तब तक आजाद नही होते जब तक की हम अपने इंतकाम से आजाद नही हो जाते।
Written by RK jain ( Posted at my blog 'out of box' )
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