1/24/2011

धोबीघाट -समीक्षा

समीक्षा धोबीघाट अच्छी मूवी हें या बुरी इस बारे मे निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता.पर मुख्या धारा के मनोरंजन प्रेमी दर्शको को ये निराश अवश्य करती हें. मूवी एक आर्ट मूवी की तरह शुरू होती हें.दर्शको की भावनाओं  के साथ खिलवाड़ करती हें और अंत मे उसे साहित्य की कल्पनापरक गलियों के अंत की तरह  धुखांत- सुखांत के भवर मे डालकर समाप्त हो जाती हें.आमिर खान की छवि व्यावसायिक सिनेमा मे आर्ट एलिमेंट वाली मुविस की बनी हुई हें जो मनोरंजन करने के साथ साथ दिल को भी कही छुटी हें.ऐसे मनोरंजन और मूवी की अपेक्षा रखने वाले दर्शको को इससे निराशा ही हाथ लगेगी.खेर जो भी हें मूवी ठीक हें पर आर्ट की द्रष्टि से भी इसे कोई बहुत अच्छी मूवी नहीं कहा जा सकता.रेनकोट,लाइफ इन अ मेट्रो.जेसी मुविस के आस पास भी नहीं हें. कभी कभी लगता हें की मूवी मधुर भंडारकर की फिल्मो की तरह सत्य का शाक्षात्कार करते हुई चलती हें.कभी वृत्त चित्र के सामान लेकिन उस द्रष्टि से भी उतनी गहराई नहीं हें . एक द्रश्य जरुर अन्दर तक झकझोर देता हें. जब तीन विडिओ केसेट देखते हुए आमिर उसके तार्किक अंत की कल्पना करता हें तब नायक और मूवी की के द्रश्य मे पसरी हुई असहायता  हमें अन्दर तक झकझोर देती हें. एक पल के लिए तो एसा लगता हें की नायक अब सब कुछ छोड़कर उस नायिका की जीवन सुधरने का बीड़ा उठा लेगा पर अगले ही पल फासी के द्रश्य की कल्पना मन को गहरे अवसाद गुस्से और असहायता के भवर मे ले जाती हें.फिल्म मे प्रतीक  रूप से बेजान इमारतो या घरो से जुडी हुई लोगो की जिन्दगी को दिखाया गया हें.हर घर या इमारत के बदलने से जिन्दगी किस तरह से बदल जाती हे.बेजान पत्रों में भवनाओं का खाधा मिलने से ही वह घर बनता हे.जिसे छोड़कर जाना गहरे अलगाव को पैदा करता हे.हालाकि आमिर को भी अंत में घर बदलने के सिवा कुछ और नहीं सूझता.ये बात जरुर हे की आम फिल्मो की तरह निर्देशक ने तलक शुदा नायक के अवसादग्रस्त स्थिथि का कारण उसकी पत्नी को बताने से बचा गया हे जो काबिलेतारीफ हे .दूसरी और  द्वंद मे पड़ी नायिका जो पेंटर को प्यार करती हें पर धोबी से मिल रहे भावनाओ के कोमल स्पर्श को भी नहीं छोड़ना चाहती.अंत मे उसके द्वरा पेंटर  का पता देने और अपने दोस्त की हत्या से उपजे सच को स्वीकार कर नायिका के द्वंद को जानकार अपने मनोरम कल्पनाओं को विराम देने की कहानिया ह्र्दयास्पर्शी जरुर हें. पर त्री इडियट जेसी हास्य--उदेश्यपरक फिल्म की अपेक्षा लिए फिल्म देखने गए सामान्य दर्शको का इससे संतुष्ट हो पाना संभव नहीं हें . मजाक मे लोग ये भी  कह रहे हें. संजय लीला भंसाली के बाद शायद आमिर मे आस्कर के मोह मे पड गए लगते हें . खेर जो भी हो ये धारणा तो टूट ही गयी हें की आमिर की मूवी हें तो अच्छी  ही होगी.by राकेश जैन 

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