यह इस देश की विडंबना है की जिस भाषा को संपर्क सूत्र और ज्ञानार्जन की भाषा के के रूप मे काम करना चाहीये था़ । जिसका सहारा लेकर लोग आगे बढते । उसे बडी ही चतुरता से मैकाले के पुत्रो ने दीवार के रूप मे बदल दीया है। ताकी पीढी दर पीढी इन्ही के वंशज जागीर संभांलते रहे। संघ लोक सेवा आयोग द्वारा सी सैट लागू करना तो इसका एक उदाहरण मात्र है। हालात पहले भी कभी अचछे नही रहे । हा ये जरूर है की ईतनी निर्लज्जता दवारा गैर अंगैजी भाषी/हिन्दी भाषी छात्रों का दमन नही कीया गया़ । ये यूपीऐससी का इतिहास रहा है की जब जब छात्र आंदोलित हुए है उसके अगले वर्ष परिणाम अचछे रहे है। मुझे जहा तक याद हे वर्ष २००४ -२००५ में प्रथम पांच में हिंदी माध्यम के भी दो अभ्यर्थी थे। आम तौर पर प्रथम पंद्रह या पचीस में से एक दो माध्यम के चयनित होते रहे हे। मजेदार बात यह हे की जैसे ही आंदोलन या हिंदी के साथ भेदभाव का हो हल्ला होता हे उसके अगले ह वर्ष फिर प्रथम पचीस में हिंदी माध्यम के कुछ और छात्र जगह बनाते हे।
हमेशा प्रथम पन्द्रह या पचीस में से एक दो स्थान आना संदेह पैदा करता रहा हे। या तो ये माना जाए की आजतक हिंदी माध्यम का कोई भी अभ्यथी प्रथम स्थान पाने लायक मान सिक स्टर का रहा ही नहीं या ये माना जाये की उनके साथ साक्षात्कार में भेदभाव होता हे और उन्हें काम अंक दिए जाते हे। कुछ लोग ये भी मानते हे की मानक पाठ्य सामग्री ( दिलजले -- बाजीराव /श्रीराम / THE हिँदू पढ़े ) के अभाव में हिंदी माध्यम के ज्यादातर अभ्यर्थी चयन के लायक ही नहीं होते। ये तो यू पी ऐस सी उन्हें कृपा करके ले लेती हे। जाहिर हे जिन्हे जो तर्क सूट करेगा वो उसे ही मानेगे / सच क्या हे ये जब तक RTI me उत्तरपुस्तिकाओं की प्रतिया ना मिले नहीं जाना जा सकता।
मेरा मानना हे की समान्य अध्यन में मानक पाठ्य सामग्री का आभाव व साक्षातकार में किसी अंगेरजीदा के बोर्ड में पड जाना ही निर्णायक होता रहा हे। दबे स्वर में ये सवाल भी उठाये जाते हे की ही सामान्य अध्यन्न में उत्तरपुस्तिकाए सामान्यत अंगरेजी भाषी विद्वानही जांचते हे जिनकी हिन्दी बस काम चलाऊ बोल चल लायक होती हे। ऐसे विद्वान हिंदी में गुणवत्तापूर्ण लेखन को नहीं समझा पाते हे और औसत नम्बर देकर परीक्षण की इतिश्री कर लेते हे। अगर ऐसा नहीं होता तो आखिर UPSC को उत्तरपुस्तिकाओं की फोटोकॉपी RTI के तहत देने में हर्ज ही क्या हे। न्याय होना ही नहीं चाहिए न्याय होता हुआ दिखना भी चाहिए। इस मामले एक और उदाहरण दर्शनशात्र जैसे विषय का है जिसमे सामान्यत हिंदी माध्यम के छात्र ही 350 से अधिक अंक लाते रहे है। दबे स्वर में लोग मजे लेते हुए कहते हे दर्शनशास्त्र की उतरपुस्तिकाए आम तोर पर राजस्थान या उत्तर प्रदेश के ही विद्वान जांचते हे जिनकी सिर्फ भारतीय अदर्शन पर ही अच्छी पकड़ होती हे। हिन्दीभाषी होते हे जिससे सामान्यत अंग्रजीभाषी छात्र के साथ न्याय हो पाना मुश्किल हो जाता हे। क्योकि समकालीन दर्शन जैसे विषय पर पुरे भारत में २ या ३ अच्छे विद्वान हे बाकि के लिए किसी अंग्रजी माध्यम के छात्र द्वारा लिखे गये गुणवत्ता पूर्ण उत्तर को समझाना मुश्किल हो जाता हे अत वह भी औसत नम्बर के शिकार होते हे। पर हिंदी माध्यम में यह अन्याय जहा सामान्य हे वही अंगरेजी माधयम में यह सिर्फ एक अपवाद हे।
ज्यादातर हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों में से 80 % के आसपास ऐसे होते हे जो जयादातर अंगरेजी की ही पाठ्यसामग्री को अपने अध्यन का आधार बनाते हे। चाहे वो थे हिन्दू पढ़ना हो या EPW या फिर किसी अंग्रजी माध्यम के कोचिंग के नोटस हो। पर समयसीमा में बंधे प्रश्नपत्रों में लिखने के लिए हिंदी या अपनी मातृभाषा (तमिल , तेलगु ,मलयालम ) अपने आपको ज्यादा सहज पाते है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिए की अंगरेजी के आलावा अन्य भाषाओ में परीक्षा देने वाले अंग्रजी नहीं जानते। कुछ हिन्दी भाषी अभ्यर्थी अपने आपको तयारी की लम्बी अवधी के दोरना ही पूरी तरह से अंग्रजी माध्यम के समकश जाते है पर फिर भी मुख्या परीक्षा और िनिबन्ध में सहज प्रवाह में किखने हेतु हिंदी माध्यम को बनाये रखते हे जिसका उन्हें नुक्सान भी उठाना पड़ता है। यह तथ्य इस बात से भी पुष्ट होता हे की इंग्लिश अनिवार्य के पेपर में पास होने के लिए अंग्रजी पढ़ने व लिखने की सामान्य से अधिक ही योग्यता चाहिए। अगर हिंदी माध्यम का अभ्यर्थी अंग्रजी की अध्यन सामग्री से पढ़कर दे तो भी इकोनोमिक्स व साइंस एंड टेक्नोलॉजी में नमबर काम ही आते है। में स्वय भी इसका शिकार रहा हु। दो साल तक इन विषयो पढ़ लेने और पेपर अच्छे होने के बावजूद भी नतीजा धक के तीन पात ही रहा।
जब सी सेट लागू हुआ था तभी हम जैसे लोग इसके धुर विरोधी थे क्योकि इसके प्रस्ताव में ही यह निहित था की अबसे प्रीलिम्स आईआईएम, आई आई टी, और इंजनियरिंग और बैंक पी ओ की तैयारी करने वालो की बपोती बनकर रह जाएगा। वो CAT की तैयारी करने के साथ साथ वो जब चाहे प्रीलिम्स देंगे . समय हुआ तो मुख्या परीक्षा देंगे अन्यथा अपने मूल एग्जाम कैट पर ही ध्यान देंगे। एक तरह से आईएएस की परीक्षा में उन लोगो की भरमार होगी जिनका आईएएस प्रथम लक्ष्य कभी नहीं रहा। उनमे भी वही लोग अंत तक रुकेंगे जिनको कैट के द्वारा कोई अच्छा कालेज नहीं मिल जाता। यह सर्वश्रेठ चुनने के बजाये कुछ और की शुरआत थी। बड़ी संख्या में मुखय परीक्षा को छोड़ देने वाले अभ्यर्थियों से यही बात पुष्ट होती हे। ये वैसे ही हे की डाक्टरी की परीक्षा में नाचने और गाने या मॉडलिंग पैरामीटर बना दिया जाये तो लोग डॉक्टर बनेंगे उनमे से आधे ही डॉक्टरी की कठिन पढ़ाई छोड़ भागंगे और बचे खुचे मरीज को बगवान के पास पंहुचा देंगे। ( ऐसे प्रशासक आम जनता को ४००००/- rs की सैलेरी में कहा सुशासन दे पायंगे वो तो १ करोड़ रुपए महीने सैलॅरी वाली नौकरी का खाव्ब संजोये जल्द ही कॉर्पोरेट के सेवक बनगे या आकंठ गंगा में डुबकी लगायंगे )
पिछले दो तीन वर्षो में इसके परिणाम सामने आ गये हे. इस वर्ष अंतिम रूप से सिर्फ 26 अभ्यर्थियों का चयन होना इस निर्लज्जता की पराकाष्ठा हे। अंग्रजी में कार्यसाधक ज्ञान को बढ़ावा देने के बजाये उसे ही अभ्यर्थियों को बहार निकलने का रास्ता बना लेना समझ से पर है।
संघ लोक सेवा आयोग की प्रणाली में वैसे तो और भी गंभीर मुद्दे हे जिनको सुधरने के लिए ही ये बदलाव किए गए थे। पर अब ये साबित हो गया हे की ज्यो ज्यो दवा की मर्ज बढ़ता गया। ये डेल्ही यूनिवर्सिटी ,JNU or अन्य िशवविद्यालये के मानविकी से पढ़ने वाले अंग्रजी भाषी विद्यार्थियों के लिए भी हानिकारक हे। इससे मानविकी विषयो में उपलब्ध सभी अंग्रजी भाषी प्रतिभाये भी हतोत्सहित हुई है। क्योकि सी सेट के बजाये फिर CAT की तैयारी क्यों ना कर जाये।
कुछ और भी बाते अस्पष्ट रूप से पता चली हे जैसे सी सेट में जी के और सी सेट के क़्वालीफआई अंक अलग अलग है। मुख्या परीक्षा में हिंदी में जहा 10 % अंको पर ही पास कर दिया जाता है बही अंग्रजी में 33 % पर वो भी कठिन पेपर देकर। अगर ये मानक वास्तव में ही सत्य हे तो ये तो वैसा ही हे जैसे किसी को कान उमेठकर या पिछवाड़े पर लात मारकर बाहर निकाला जाता है।
तो हिंदी भाषियों को सरकार से सी सेट और आई ए ऐस परीक्षा का अंग्रजी के झुकाव वाला दृश्टिकोण बदलने के बजाय सविधान में लिखित मूल अधिकार लोक नियोजन में अवसर की समानता को मिटाने के लिए कहा जाना चाहिए।
हिंदी माध्यम और अन्य देशी भाषाओ में दी जा रही शिक्षा व विद्यालय पर पूरी तरह से बेन लगा दिया जाना चाहिए। ताकि कल को कोई बेटा या बेटी अपने बाप से ये ना पूछे क्यों आखिर मुझे हिंदी के स्कूल पढ़ाया ?? क्या आपके पास दो जून की रोटी के साथ साथ मुझे इंग्लिश स्कूल में पढ़ाने लायक भी पैसे नहीं थे ? और बेचारा बाप शर्म से आखे जमीन में गड़ाए सोचता रहे की आखिर अंग्रजी को विकास का पुल बनाने का दवा करने वालो ने ना जा ने कोण कोनसे नियम बनाकर उस पल खड़ा करके एक मजबूत दीवार बना दी जिसे वो तो क्या उसकी सात पीढ़िया भी नहीं लाँघ पाएँगी। क्यों नहीं धरती फट जाती और वो उसमे समा जाता ?
लेखक द्वारा व्यक्त विचार पूर्णत निजी हे , लेखक तथ्यों की सत्यता का दावा नहीं करता। अधिकांश तथ्य लेखक के स्वयं तैयारी के दौरान हुए अनुभवों व सुनी सुनाई बातो पर आधारित है। पाठक विवेकानुसार अपनी धारणा बनाये।